जल, जंगल और ज़मीन के साथ मानव सभ्यता के विकास की जड़ें बहुत गहरी जुड़ी हैं और इनमें जल जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए सर्वोपरि है. इसीलिए जल की महत्ता प्राचीन परम्पराओं से होती हुई आज भी हमारी विकास योजनायों में बह रही है. ये अलग बात है महत्ता के विपरीत वास्तविक नदियों, तालों में बहने वाला जल संकटग्रस्त है. जल संरक्षण की योजनायें, तकनीकें, सामुदायिक जागरूकता आदि के शोरगुल के बीच एक शब्द सुना ‘डोभा’. डोभा- पहली बार में ये शब्द एक अजूबी वस्तु की भांति लगा था, जिज्ञासा थी इसे समझने की और जानने की. फिर जब प्रत्यक्ष देखा तो पानी से भरा एक तालाबनुमा 10 फीट गहरा गड्ढा था. उस वक़्त उस छोटे से डोभे के पीछे के अर्थपूर्ण पर्याय के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी ना थी संभवतः इसी कारण वह डोभा एक साधारण पानी से भरे गड्ढे से अधिक कुछ नहीं लगा. पर बनाने वाले और बनवाने वालों से सुना तो कहानी असाधारण थी.
यदि कहानी का प्रारब्ध झारखण्ड की आदिवासी पृष्ठभूमि से शुरू किया जाये, तो जल सन्दर्भ में ध्यान जाता है वहां के प्राकृतिक संसाधनों और संपन्न जंगलों पर. साथ ही दिखता है विकासशीलता के पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक रूप से धीमा चलता झारखण्ड. एक दूसरे से विपरीत इन दो पहलुओं के बीच की कड़ी है झारखण्डी ज़मीन पर बहता पानी. पथरीली ज़मीन पर तीव्र वेग से बहते वर्षा के पानी को देख उसे किसी तरह रोक लेने की इच्छा और उससे संभव लाभ का मोह उस एक क्षण के लिए आदिवासी किसानों के विवश सूरतों पर तब अधिक उजागर होता है जब उनसे उनकी खेती और आय की चर्चा की जाए. पृष्ठाधार के लिए, झारखण्ड मुख्यतः भारत में दक्षिणी घाट का पूर्वोत्तरी खंड है जो छोटा नागपुर पठार की पथरीली चट्टानों से बना है और घने जंगलों से घिरा है. प्राकृतिक संसाधनों के लिए प्रसिद्ध इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में औसत वर्षा होने के बावजूद मीठा पानी सागर से मिलकर तुरंत खारा हो जाता है. साल में औसत वर्षा स्तर लगभग १३०० मिलीमीटर होने के बावजूद भी झारखण्ड में कृषि इतनी संकुचित है कि उससे आदिवासी किसान परिवारों को स्थायी आजीविका नहीं मिल पाती. इसी कारण से यहाँ गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं. कुल मिलाकर विकास मानकों पर यदि झारखण्ड को मापा जाए और बदलाव का सिरा पकड़ने की बात की जाए तो कहानी यहाँ के बहते जल पर आ कर रूकती है. इसी कारण यहाँ वर्षाजल को सहेजना अधिक आवश्यक हो जाता है.
झारखण्ड की ऊंची-नीची पहाड़ियों वाली भौगोलिक संरचना के कारण यहाँ जल संरक्षण के लिए बड़े तालाब जैसे आकार की अपेक्षा जगह छोटे-छोटे ‘डोभे’ अधिक उपयोगी साबित होते हैं. प्रारूप में डोभा कुएं या पोखर से मिलता-जुलता परन्तु थोड़े छोटे आकार के गहरे गड्ढे की भांति होता है. आमतौर पर डोभे 10X10X10 या 30X30X30 के आकार के डोभे बनाये जाते हैं. डोभों के सफलतापूर्वक निर्माण के लिए ऊंची सतह या स्त्रोत से निचली सतह अथवा ढलान की ओर पानी के बहाव को समझने की आवश्यकता है. इसके द्वारा यह जानना आसान हो जाता है कि पानी किस रास्ते से होकर नीचे जायेगा और इकठ्ठा होगा. निचली ज़मीन पर ऐसी जगहें जहाँ पानी एकत्रित होने की सम्भावना अधिक होती है उन बिन्दुयों पर डोभों का निर्माण केन्द्रित किया जाना चाहिए. इस प्रकार के डोभे पूरे वर्ष पानी से भरे रहते हैं जिससे किसानों को दुगनी फसल का लाभ मिलता है.
हालाँकि किसानों की खुशहाली के लिए पानी की उपलब्धता के साथ साथ उन्नत बीज, खेती की नई तकनीकें और सही जानकारी की सबसे अधिक आवश्यकता है. पर डोभों द्वारा जल संरक्षण इस दिशा में पहला कदम है जिसके सफली
परिणामों को देखते हुए झारखण्ड प्रदेश सरकार ने भी मनरेगा योजना के अंतर्गत डोभों को निर्माण को शामिल किया है. इसके आलावा विभिन्न गैर-कानून सामाजिक संस्थाएं डोभों के निर्माण में आदिवासी किसानों का साथ दे रही हैं. एकाएक चालित इस अभियान में आज सैंकड़ों लोग अपनी अपनी क्षमताओं का योगदान कर रहे हैं. डोभा नया नहीं है पर डोभे बनाने वालों की प्रतिबद्धता और उत्साह नया है. और यही नवल उत्साह शुरू करता है भारत के पारंपरिक जल तंत्र के गौरवपूर्ण इतिहास में एक और अध्याय. इसी तर्ज पर अनुपम मिश्र द्वारा लिखित किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में तालाबों का अनूठा विवरण मिलता है. तालाब के साथ साथ तालाब बनाने वालों का के इतिहास का इतनी बारीकी से विश्लेषण किया गया है कि उन सभी गजधर, कोल, भील, मीणा आदि जातिओं और संगठनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना राष्ट्रीय अनिवार्यता होती दिख रही है. पाल से लेकर आगौर-आगर तक, तकनीकी विशेषताओं के साथ कलात्मकता को भी समझाते एकदम सरल शब्द. और उतना ही सरल है परंपरागत जल व्यवस्था को समझना और उसे लागू करना. हम आज सामुदायिक प्रबंधन की बात करते हैं, आसान और कम कीमत वाले तरीकों को संस्था और व्यक्तिगत दोनों स्तर पर प्रोत्साहित करते हैं. पर इस किताब को पढ़ कर एक सवाल उठता है, स्पष्टरूप से सामुदायिक उत्तरदायित्व और एकजुट प्रयास भारतवर्ष में कोई नई बात तो नहीं है. वह भी विशिष्टतः जल प्रबंधन के क्षेत्र में. फ़िर आज का समय आने तक यह प्रचलित स्वभाव कैसे लुप्त हो गया! मध्य प्रदेश के चंदेला और बुंदेला राजाओं का यशगान करते चंदेला-बुंदेला टैंक, राजस्थान में जोहड़ और बावड़ियाँ, खादीन और टंका, बिहार के अहर और प्यने जैसी दर्जनों सफल जल प्रणालियों का लेखा मिलता है जिनसे सदियों तक जल आपूर्ति भी हुई और प्रकृति का संतुलन भी बना रहा. आश्चर्य तो इस बात पर है, कि जहाँ प्राचीन परम्पराएं अपने मूल या विकृत रूप में आज भी समाज में मज़बूत हैं वहां जल प्रबन्धन की बेजोड़ प्रणालियाँ कैसे लुप्त होती चली गयीं.
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि सफल जल प्रबंधन तंत्र हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग रहा है. इसी समझ के साथ झारखण्ड के डोभे गांवों में पानी के साथ साथ खुशहाली भी एकत्रित करने में मददगार साबित हो रहे हैं. अधिकाधिक उपलब्ध पानी से पारंपरिक धान के अतिरिक्त सब्ज़ियां, फूलों आदि की खेती के अवसर खुलने लगे हैं. हालाँकि यहाँ डोभा बनाने का काम न जाति विशेष है न अधिकार सम्बन्धी, यह उस एकदम सरल रास्ते की भांति प्रतीत होता है जिसपर जो चाहे चले, परिणाम अच्छा ही आएगा. आज एक बार फिर प्रयास ज़ारी है झारखण्ड के आदिवासिओं को उन्हीं के परिवेश के अनुसार सक्षम बनाने का और इसमें अहम् भूमिका है डोभों की और डोभे बनाने वालों की.
“श्वेता प्रजापति सीआईपीटी के साथ कार्यरत हैं."
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